2025-05-02 18:21:05
भारत एक जाति प्रधान देश है, इसलिए यहाँ पर जाति जनगणना होना आवश्यक कदम है। अभी तक जाति जनगणना का विरोध करने वाले सिर्फ ब्राह्मणी-संघी मानसिकता के लोग ही थे। ये सभी लोग कांग्रेस, भाजपा और अन्य सभी राजनैतिक दलों में थे। बहुजन समाज के महानायक मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने इस देश में जातिगत राजनीतिक विसंगता को देखकर नारा दिया था-‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी।’ इस नारे में उनका साफ मंतव्य था कि जाति प्रधान देश में जिस जाति की जितनी संख्या है उनका देश के संसाधनों में जातिगत जनसंख्या के हिसाब से अनुपातिक हिस्सा होना चाहिए। परंतु ब्राह्मणी-संघी मानसिकता के लोगों की आंतरिक संरचना में इस तरह की अनुपातिक हिस्सेदारी को लेकर उनके कथित धार्मिक ग्रंथों में प्रावधान नहीं है। इसी कारण ब्राह्मणी संस्कृति के लोग बहुजन समाज के महानायक मान्यवर साहेब कांशीराम जी के विरोध में थे। इसी प्रकार की समस्या बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के सामने भी आयी थी जब वे इस देश के सभी व्यस्क नागरिकों के लिए संविधान में मताधिकार का प्रावधान कर रहे थे। तब उस समय के विद्वान माने जाने वाले नेता जैसे बाल गंगाधर तिलक, सरदार बल्लभभाई पटेल व कुछेक गुजरात व अन्य प्रदेशों के तत्कालीन कांग्रेसी नेता बाबा साहेब के द्वारा दिये जा रहे मताधिकार का विरोध करके कह रहे थे कि कुनबी, तेली व इनके समकक्ष अन्य अत्यंत पिछड़ी जातियों के लोग संसद में पहुँचकर हल चलाएंगे या तेल निकालेंगे? आज भी अधिकांश अत्यंत पिछड़ी जातियों के ये लोग बाल गंगाधर तिलक और पटेल को एक सम्मानीय नेता मानते हैं। अभी तक भी ये जातीय घटक अपने नागरिक अधिकारों को जानने और समझने में असक्षम ही है जिसके कारण अत्यंत पिछड़ी जातियों के लोग आज देश में हिन्दूवादी संस्कृति को मजबूत कर रहे हैं। लगातार देश में ब्राह्मण बनिया गठबंधन की सरकारों को निरंतरता के साथ स्थापित कर रहे हैं। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने 1930, 1931, 1932 की गोलमेज सभाओं में भाग लेकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और भारत से गए अनेकों भारतीय प्रतिनिधियों को यह साफ-साफ बताया था कि एससी, एसटी और अत्यंत पिछड़ी जातियाँ हिन्दू नहीं है। इन सभी जातियों के लोग एक ‘अति विशिष्ट अल्पसंख्यक समुदाय’ है। अधिकतर ये सभी लोग भूमिहीन है इसलिए इन सभी को सामाजिक रूप से ऊपर उठाने के लिए कुछेक विशेष प्रावधान करने होंगे और सरकारों को भी इनके लिए कुछ विशेष योजनाएं बनाकर चलानी होगी। तभी यह अति विशिष्ट अल्पसंख्यक समुदाय सामाजिक स्तर पर ऊपर उठ सकेगा। समाज में अपनी पहचान बना सकेगा और अपने समुदाय की अनुपातिक हिस्सेदारी के लिए संघर्ष भी कर सकेगा।
जाति जनगणना का अभी तक विरोध क्यों था? इस समस्या को साधारण शब्दों में समझने के लिए हम इस तरह समझ सकते हैं कि जिन जातियों के लोग गणना के हिसाब से बहुसंख्यक है उनकी देश के संसाधनों में और राजनीति में हिस्सेदारी नगण्य है। जिन समुदायों का देश के संसाधनों और राजनीतिक सत्ता में वर्चस्व है वे हमेशा से जनगणना के विरोध में रहे हैं चाहे वे किसी भी राजनैतिक दल में है। वर्तमान समय में केंद्र व कई प्रदेशों में ब्राह्मण-बनिया गठबंधन की सरकारें हैं। जनसंख्या के आधार पर ब्राह्मण इस देश में तीन प्रतिशत है और बनिया समुदाय पाँच प्रतिशत के आसपास है। देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इन दोनों समुदायों की कुल संख्या 8-9 प्रतिशत आँकी जा सकती है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अनुसार 8-9 प्रतिशत संख्या वाला समुदाय कभी भी देश की सत्ता में नहीं आ सकता। इसी डर के कारण यह समुदाय जाति जनगणना का लगातार विरोध कर रहा था। चूंकि उन्हें पता है कि अगर देश के लोगों को उनकी जाति की संख्या के आँकड़े मालूम हो जायेंगे तो वे देश की राजनीतिक और प्रशासनिक सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगेंगे, जिसके फलस्वरूप ब्राह्मण बनिया गठबंधन के लोगों का वर्चस्ववादी प्रतिनिधित्व समाप्त हो जायेगा।
जाति जनगणना का मतलब: जातिगत जनगणना का मतलब है कि देश में किस जाति के कितने लोग है इसकी गिनती की जाएगी, जिसके बाद देश में जातियों के आँकड़े साफ-साफ सामने आ जाएँगे। साथ ही यह भी पता चल जाएगा कि किस जाति की देश के संसाधनों में कितनी हिस्सेदारी है? देश में जातिगत जनगणना 1931 तक पहले भी हुई है। 2011 में जातिगत जनगणना हुई थी। लेकिन तब इसके आँकड़े सरकार ने जारी नहीं किये थे। इसके पीछे तत्कालीन कांग्रेसी सरकार की मानसिकता क्या थी यह तो पता नहीं है परंतु भारत की सरकारों में हमेशा से ब्राह्मणी संस्कृति का वर्चस्व रहा है और ब्राह्मणी मानसिकता के लोग नहीं चाहते कि देश में जातिगत जनगणना हो। चूंकि वे ये जानते हैं कि 8-9 प्रतिशत (ब्राह्मण-बनिया गठजोड़) की संख्या में होकर, देश की सम्पदा, संस्कृति और संस्थानों में 85 प्रतिशत तक के हिस्से पर कब्जा जमाये हुए हैं। जातिगत जनगणना के बाद इस तरह देश के संसाधनों पर कब्जा रखना प्रजातांत्रिक सरकारों में असंभव होगा और यही आजतक उनके विरोध का मूल कारण है। ब्रिटिश सरकार के द्वारा इस देश में जातिगत जनगणना की शुरूआत 1842 में हुई थी। उसके बाद इस तरह की जनगणना विधिवत रूप से 1931 तक रही। उसके बाद जातिगत जनगणना बंद हो गई। इसके बाद हर 10 वर्ष में जनसंख्या की गणना होती रही जिसके अंतर्गत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनगणना तो पूर्व की तरह होती रही परंतु अन्य समुदायों की जातिगत जनगणना नहीं हुई। जिसको लेकर समय-समय पर राजनैतिक फायदे के लिए देश के विभिन्न राजनैतिक दलों ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया। 2011 में जातिगत जनगणना कराई गई थी लेकिन उसके जातिवार आँकड़े जारी नहीं हुए थे। 2014 में मोदी संघी-भाजपा सरकार सत्ता में आयी तो मोदी सरकार ने जातिगत आँकड़े जारी करने पर कहा कि इस जातिगत जनगणना में कुछ विसंगतियाँ है, जिसके कारण जातिगत आँकड़े जारी नहीं किये जा सकते। 2011 की जनगणना के बाद जनगणना 2020-21 में होनी थी लेकिन कोरोना के चलते वह नहीं हो पाई। अब जातिगत जनगणना 1930-31 में होनी है, पिछले तीन-चार वर्षों से भाजपा संघी सरकारों पर सामाजिक दबाव है कि देश में जातिगत जनगणना होनी चाहिए। विपक्ष में बैठे कांग्रेस सहित अन्य राजनैतिक दल भी जातिगत जनगणना की माँग 2024 के संसदीय चुनाव से ही कर रहे थे। जिसके दबाव में मोदी संघी सरकार ने 30 अप्रैल 2025 को जातिगत जनगणना कराने का फैसला लिया है। जिसे भाजपा संघियों के अंधभक्त ऐतिहासिक फैसला बता रहे हैं। ऐसा लगता है कि इन संघी अंधभक्तों को यह भी पता नहीं है कि जो कार्य ब्रिटिश सरकार के जमाने से देश में होता आ रहा है उसे ऐतिहासिक कैसे कहा जा सकता है?
जातिगत जनगणना की जरूरत क्यों? जातिगत जनगणना के सवाल पर अभी तक केंद्र की सत्ता में बैठी मनुवादी संघी मानसिकता की भाजपा सरकार अभी तक इससे बच रही थी। जातिगत जनगणना की रिपोर्ट 1931 में सामने आयी थी उसके बाद तत्कालीन सरकारों ने जातिगत जनगणना नहीं कराई थी। 1931 की रिपोर्ट के आधार पर ही मंडल कमीशन के रिसर्च के आधार पर देश में पिछड़े वर्ग की आबादी 54 प्रतिशत आँकी गई थी, अब जातिगत जनगणना में यह आंकड़ा अधिक बढ़ सकता है। जातिगत जनगणना के आँकड़ों के आधार पर देश में ओबीसी समाज की आर्थिक और सामाजिक दशा के बारे में पता चल सकेगा। जिसके आधार पर देश में मौजूद संसाधनों में जातिगत जनगणना के आधार पर सभी की अनुपातिक हिस्सेदारी तय की जा सकेगी।
जातिगत जनगणना से देश की सम्पदा और संस्थानों में बदलाव की आवश्यकता? इस संबंध में बहुत सारे जानकारों का मानना है कि जातिगत जनगणना होने से ओबीसी समाज में उनका आरक्षित कोटा 27 प्रतिशत से अधिक बढ़ाने की माँग उठेगी। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 2019 में मोदी-संघी सरकार ने बिना माँगे 10 प्रतिशत सुदामा आरक्षण देकर ब्राह्मण बनियों की वोट को अपने पाले में किया था। जातिगत जनगणना के आधार पर आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत है उसका अब टूटना तय है। चूंकि अभी तक सरकार के पास आँकड़े नहीं थे और इसी का बहाना बनाकर ब्राह्मणवादी मानसिकता की सरकारें जातिगत जनगणना का विरोध कर रही थीं। इसी को भाँपते हुए विपक्ष में बैठे कांग्रेसी नेता आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ाने की माँग कर चुके हैं। न्यायपालिका को भी जातिगत जनगणना के बाद यह नहीं कहना पड़ेगा कि आरक्षण की सीमा बढ़ाने के लिए पहले जातिगत आँकड़ों की संख्या बताओ। पूरे देश में जातिगत जनगणना के आधार पर सभी संसाधनों में संख्या के आधार पर भागीदारी की माँग अब जोर पकड़ेगी।
बहुजन समाज की राजनीति में फेर-बदल की संभावना: बहुजन समाज के महानायक बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर व मान्यवर साहेब कांशीराम जी अत्यंत पिछड़ी जातियों की संख्या के आधार पर उनकी भागीदारी की माँग करते रहे हैं। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने संविधान के अनुच्छेद-340 में पिछड़े वर्गों को उचित आरक्षण का प्रावधान देने की बात की है। जबकि मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने 1990 के दशक में कहा था कि ‘मंडल कमीशन लागू करो, वरना कुर्सी खाली करो।’ जिसके कारण तब देश की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में एक भूचाल सा आ गया था। जिसके बाद पिछड़े वर्ग की कुछेक दबंग जातियां जैसे-जाट, गुर्जर, यादव आदि ने इसका भरपूर राजनैतिक फायदा उठाया। लेकिन जिस रणनीति और मानसिकता के आधार पर मान्यवर साहेब कांशीराम जी ने बहुजन समाज की बात की थी उनकी सामाजिक परिधि में बहुजन समाज का मतलब एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक वर्गों के लोग थे। मंडल कमीशन से जागरूक हुए लोगों में बिहार में लागू प्रसाद यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव अपने-अपने समाज के अग्रणीय नेता बने। यादव समाज ब्राह्मणी संस्कृति के वर्गीकरण के अनुसार शूद्र समाज का ही अंग है उन्हें बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों (एससी, एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यक) को राजनीति में भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए थी, मगर वे ऐसा करने में विफल रहे।
मान्यवर साहेब कांशीराम जी की देख-रेख में बहुजन समाज पार्टी की कर्मठ नेता बहन मायावती जी को भी सत्ता में चार बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में बहुजन समाज में पैदा हुए महापुरुषों के नाम पर बड़े पैमाने पर शिक्षण संस्थानों का निर्माण किया, शहरों के नाम रखे और बहुजन महापुरुषों के नाम पर देशभर में सांस्कृतिक मेलों का आयोजन भी किया। परंतु बहन जी भी बहुजन समाज के सभी जातीय घटकों को एक साथ जोड़ने और उनको सत्ता में उचित भागीदारी देकर यह अहसास कराने में विफल रही कि पूरा शूद्र समाज बहुजन समाज का अंग है, उन सबको आपस में मिलकर अपने-अपने जातीय घटकों के लिए हिस्सेदारी और नेतृत्व निश्चित करना चाहिए, जो नहीं हो पाया और शायद इसी कमी के कारण बहुजन समाज की सत्ता देश और प्रदेशों में हाशिये पर चली गई।
Monday - Saturday: 10:00 - 17:00 | |
Bahujan Swabhiman C-7/3, Yamuna Vihar, DELHI-110053, India |
|
(+91) 9958128129, (+91) 9910088048, (+91) 8448136717 |
|
bahujanswabhimannews@gmail.com |